Sunday 9 December 2012

आलोक अहिंसा का :आचार्य तुलसी


                     


वे सभी व्यक्ति अहिंसा की शीतल छाया में विश्राम पाने के लिए उत्सुक रहते हैं, जो सत्य का साक्षात्कार करना चाहते हैं.
अहिंसा का क्षेत्र व्यापक है. यह सूर्य के प्रकाश की भांति मानव मात्र और उससे भी आगे प्राणी मात्र के लिए अपेक्षित है. इसके बिना शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की बात केवल कल्पना बनकर रह जाती है. अहिंसा का आलोक जीवन की अक्षय संपदा है. यह संपदा जिन्हें उपलब्ध हो जाती है, वे नए इतिहास का सृजन करते हैं. वे उन बंधी-बंधाई परंपराओं से दूर हट जाते हैं, जिनकी सीमाएं हिंसा से स्पृष्ट होती हैं. परिस्थितिवाद का बहाना बनाकर वे हिंसा को प्रश्रय नहीं दे सकते.

अहिंसा की चेतना विकसित होने के अनंतर ही व्यक्ति की मनोभूमिका विशद बन जाती है. वह किसी को कष्ट नहीं पहुंचा सकता. इसके विपरीत हिंसक व्यक्ति अपने हितों को विश्व-हित से अधिक मूल्य देता है. किंतु ऐसा व्यक्ति भी किसी को सताते समय स्वयं संतप्त हो जाता है. किसी को स्वायत्त बनाते समय उसकी अपनी स्वतंत्रता अपहृत हो जाती है.
किसी पर अनुशासन थोपते समय वह स्वयं अपनी स्वाधीनता खो देता है. इसीलिए हिंसक व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में संतुष्ट और समाहित नहीं रह सकता. उसकी हर प्रवृत्ति में एक खिंचाव-सा रहता है. वह जिन क्षणों में हिंसा से गुजरता है, एक प्रकार के आवेश से बेभान हो जाता है. आवेश का उपशम होते ही वह पछताता है, रोता है और संताप से भर जाता है.

हिंसक व्यक्ति जिस क्षण अहिंसा के अनुभाव से परिचित होता है, वह उसकी ठंडी छांह पाने के लिए मचल उठता है. उसका मन बेचैन हो जाता है. फिर भी पूर्वोपात्त संस्कारों का अस्तित्व उसे बार-बार हिंसा की ओर धकेलता है. ये संस्कार जब सर्वथा क्षीण हो जाते हैं तब ही व्यक्ति अहिंसा के अनुत्तर पथ में पदन्यास करता है और स्वयं उससे संरक्षित होता हुआ अहिंसा का संरक्षक बन जाता है.
अहिंसा के संरक्षक इस संसार के पथ-दर्शक बनते हैं और हिंसा, भय, संत्रास, अनिश्चय, संदेह तथा असंतोष की अरण्यानी में भटके हुए प्राणियों का उद्धार करते हैं.   
               
 आचार्य तुलसी
 राजपथ की खोजसे


Saturday 1 December 2012

आत्मा का आधार है शरीर :-आचार्य तुलसी


बाती जलती है और प्रकाश करती है पर उसे जलने के लिए दीपक की अपेक्षा रहती है.
दीपक न हो तो बाती टिके कहां? दीपक का प्रकाश के साथ कोई संबंध नहीं है. दीपक मिट्टी या धातु का पात्र है और प्रकाश है एक पौद्गलिक शक्ति. सामान्यत: दोनों में कोई संबंध नहीं है; फिर भी प्रकाश को अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए आधार चाहिए. प्रकाश का आधार है- बाती, घी या तेल और उनका आधार दीपक.

संसारी आत्मा को भी अपना अस्तित्व टिकाए रखने के लिए इंद्रियों और शरीर का आधार चाहिए. इंद्रियों के माध्यम से आत्मा देखती है, सुनती है, सूंघती है, चखती है और शीत, ताप का अनुभव करती है. शरीर आत्मा की अभिव्यक्ति का साधन है. शरीर न हो तो आत्मा अव्यक्त रहती है, इसलिए शरीर को भी समझना आवश्यक है.

शरीर के तीन प्रकार है- स्थूल, सूक्ष्म और सूक्ष्मतम. औदारिक शरीर स्थूल है. यह मांस, रुधिर, हड्डियां आदि स्थूल पदार्थों से बना हुआ है. आहारक और वैक्रिय शरीर भी स्थूल माने गए हैं क्योंकि इनके निर्माण में भी स्थूल पुद्गलों का उपयोग होता है. तैजस शरीर सूक्ष्म होता है. इसका काम है- पाचन और ताप. कार्मण शरीर सूक्ष्मतम है. यह चतुस्पर्शी कर्म वर्गणाओं से निष्पन्न होता है, इसलिए पौद्गलिक होने पर भी चर्मचक्षुओं द्वारा अगम्य है.

धार्मिक लोगों ने शरीर को क्षणभंगुर ही नहीं, निस्सार और अशुचि बताया है. उन्होंने शरीर को जी भरकर कोसा है, पर यह एकांगी दृष्टिकोण है. शरीर हेय है, किसी एक दृष्टि से. इसके साथ दूसरी दृष्टि जब तक नहीं जुड़ेगी, शरीर की अच्छाइयों की ओर ध्यान नहीं जाएगा. माना कि शरीर नाशवान है, त्याज्य है. पर इसके द्वारा कितनी शक्तियां प्राप्त हो सकती हैं, यह तथ्य भी तो उपेक्षणीय नहीं है.

जो व्यक्ति इस शरीर में कमियां ही कमियां देखते हैं, वे इससे लाभान्वित नहीं हो सकते. इसमें अंतर्निहित शक्तियों को देखने और समझने वाले ही शरीर को उपयोगी बना सकते हैं.

‘खोए सो पाए’ से