Sunday 28 July 2013

सहिष्णुता धर्म है


 खोए सो पाए
आचार्य तुलसी
साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए पहला सूत्र है समता का अभ्यास.
समता का अभ्यास किस संदर्भ में? निंदा, स्तुति, लाभ-अलाभ, जीवन-मरण कोई भी स्थिति हो, मन का संतुलन नहीं टूटना चाहिए. निंदा सुनकर उत्तेजित न होने वाले व्यक्ति फिर भी मिल सकते हैं, पर अपनी प्रशंसा सुनकर उससे अप्रभावित रहना बहुत कठिन बात है. कठिन है, पर असंभव नहीं. 

निंदा में संतुलन बना रह सकता है तो प्रशंसा में क्यों नहीं रह सकता? एक चावल हाथ में लेने से पता चल जाता है कि चावल पके हुए हैं या नहीं. इसी प्रकार एक स्थिति में संतुलन रह जाता है तो यह विश्वास हो जाता है कि किसी भी स्थिति में संतुलित रहा जा सकता है.

साधक समाज में जीता है. सामाजिक वातावरण का उस पर प्रभाव होता है. ऐसी स्थिति में उसे यह नहीं भूल जाना चाहिए कि वह सामाजिक होने के साथ-साथ व्यक्ति भी है. समाज का बहुत बड़ा मूल्य है, पर हकीकत व्यक्ति है. व्यक्ति स्वयं को व्यक्ति मानकर चले तो वह किसी भी स्थिति के लिए परिस्थिति या समाज को दोषी न ठहराकर स्वयं ही सहन करने का प्रयास करेगा.

श्रीराम मुनिधर्म में दीक्षित होकर साधना में लग गए. एक बार वे ध्यान में लीन थे. उस समय बारहवें स्वर्ग का इन्द्र उनकी परीक्षा लेने आया. उसने सीता का रूप बनाया. बसंत ऋतु की विक्रिया की और हाव-भाव विलास से राम को विचलित करने का प्रयत्न किया. किंतु राम एक क्षण के लिए भी उससे प्रभावित नहीं हुए. 

इन्द्र के सारे प्रयत्न अनदेखे और अनसुने कर वे अपनी आत्मा को देखते रहे. उन्हें परीक्षा में सफलता मिली. ऐसी सफलता उन सबको मिल सकती है जो व्यक्तिगत परिवेश में मान-अपमान, सुख-दुख आदि को समभाव से सह जाते हैं. सहना धर्म है: सहना उपशम और श्रेय की दिशा में गति है, सहना साधना की पहली और अंतिम सीढ़ी है. इसलिए साधक को सहिष्णु बनकर उससे प्राप्त होने वाले आनंद का अनुभव करना चाहिए.