Wednesday 28 November 2012

जैन दर्शन मनन और मीमांसा - आचार्य श्री महाप्रज्ञ




आत्मा का आंतरिक वातावरण

पदार्थ के असंयुक्त रूप में शक्ति का तारतम्य नहीं होता। दुसरे पदार्थ से संयुक्त होने पर ही उसकी शक्ति न्यून या अधिक बनती है। दूसरा पदार्थ शक्ति का बाधक होता है, वह न्यून हो जाती है। बाधा हटती है, वह प्रकट हो जाती है। संयोग-दशा में यह ह्रास-विकास का क्रम चलता ही रहता है। असंयोग-दशा में पदार्थ का सहज रूप प्रकट हो जाता है, फिर उसमे ह्रास या विकास कुछ भी नहीं होता।

आत्मा की आन्तरिक योग्यता के तारतम्य का कारण कर्म है। कर्म के संयोग से वह (आन्तरिक योग्यता) आवृत होती है या विकृत होती है। कर्म के विलय (असंयोग) से उसका स्वभावोदय होता है। बाहरी स्थिति (परिस्थिति) आन्तरिक स्थिति (कर्म युक्त आत्मा) को उतेजित कर आत्मा पर प्रभाव डाल सकती है, सीधा नहीं।

शुद्ध या कर्म-मुक्त आत्मा पर बाहरी परिस्थिति का कोई भी असर नहीं होता। अशुद्ध या कर्म-बद्ध आत्मा पर ही उसका प्रभाव होता है। वह भी अशुद्धि के अनुपात से। शुद्धि की मात्रा बढ़ती है, बाहरी वातावरण का असर कम हो जाता है। शुद्धि की मात्रा कम होती है, बाहरी वातावरण का छा जाता है।

परिस्थिति ही प्रधान होती तो शुद्ध और अशुद्ध पदार्थ पर समान असर होता, किन्तु ऐसा नहीं होता है। परिस्थिति उतेजक है, कारक नहीं।

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