Friday 30 November 2012

प्रत्येक क्रिया प्रेरणा का परिणाम :आचार्य तुलसी


कर्म और अकर्म दो प्रतिपक्षी शब्द हैं. कर्म सक्रियता का प्रतीक है और अकर्म निष्क्रियता का.
यह एक बहुप्रचलित धारणा है कि मनुष्य को सक्रिय रहना चाहिए. जो व्यक्ति कर्मशील नहीं होता वह आलस्य और प्रमाद को प्रश्रय देता है. आलसी व्यक्ति अपनी शक्ति का नियोजन किसी शुभ कर्म में नहीं करता, इसलिए वह अकरणीय कर्म में प्रवृत्त होता है.

‘खाली दिमाग शैतान का घर’ उक्त जनश्रुति भी इस तथ्य को पुष्ट करती है. किंतु मैं बहुत बार सोचता हूं कि कर्म और अकर्म के संबंध में लोगों की जो धारणाएं हैं, क्या वे उनके सही अर्थ-बोध के बाद जन्मी हुई हैं या मात्र परंपरा से प्राप्त हैं?

सच तो यह है कि सापेक्ष चिंतन के बिना कोई भी निर्णय परिपूर्ण नहीं होता. मेरी समझ से कर्म करना जितना सरल है, अकर्म बने रहना उतना ही कठिन है. कठिन ही नहीं सक्रियता से सर्वथा मुक्त होना असंभव है, क्योंकि मानसिक, वाचिक व कायिक कर्म का निरोध तो हो सकता है, पर आध्यात्मिक सक्रियता शैलेशी या सिद्धावस्था में भी समाप्त नहीं होती. वहां कोई दृश्य क्रिया भले ही न हो पर चेतना की स्वाभाविक क्रियाशीलता अनवरत चालू रहती है.

कर्म और अकर्म को उनके सूक्ष्म स्तरों पर समझे बिना जानकारी का धरातल ठोस नहीं हो सकता. इस दृष्टि से कर्म से भी अधिक उस बात पर विचार करना है, जिससे कर्म की प्रेरणा मिलती है. मनुष्य का हाथ हिलता है. वह किसी को चांटा मारता है तो किसी के सामने प्रणाम करने की मुद्रा में क्रिया करता है.

क्या यह क्रिया हाथ की है? शरीर स्थित सेंसरी नर्व और मोटार नर्व की प्रेरणा न हो तो हाथ कोई क्रिया कर ही नहीं सकता. इसका अर्थ यह होता है कि हमारी प्रत्येक क्रिया भीतरी प्रेरणा का परिणाम है. गीता के अनुसार कोई भी देहधारी संपूर्ण रूप से कर्म-मुक्त नहीं हो सकता.

कर्म की सामान्य परिभाषा के अनुसार यह तथ्य ठीक है, पर वृत्ति का संशोधन हो जाने के बाद कर्म भी अकर्म बन जाता है. संशोधित वृत्ति वाला व्यक्ति कर्म करता हुआ भी बंधन से मुक्त रहता है, इसलिए वह कर्म अकर्म ही है.
‘खोए सो पाए’ से साभार

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